एक सार्थक जीवन क्या है? या एक सार्थक जीवन कैसे जीएं ? कई बार ऐसे भाव हमें परेशान करते हैं। कई बार जीवन व्यर्थ या निरर्थक सा लगने लगता है। कई बार हम जीवन को ले कर उदासीन हो जाते हैं। और नीरसता मन को व्यथित करने लगती है। वास्तव में इस संसार में कोई भी जीवन आप जीएं, यह भाव आएगा ही। क्यूंकि इस संसार के सभी सुख -- काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार इसी भाव से बंधे हुए हैं। मनुष्य जीवन का हर भाव क्षणिक होता है। सांसारिक सुख क्षणिक होते हैं। भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं "ऐसा तीनों लोकों में कोई नहीं है कौन्तेय जिसके मन में यह भाव न आता हो; कभी सत्वगुण का, कभी रजोगुण का, कभी तमस का।"
अधिकांश लोग अपने जीवन में बोरियत महसूस करने लगते हैं। परन्तु बोरियत और सार्थकता दोनों ही भिन्न हैं। जब आप जीवन से बोर नहीं होते हैं सार्थकता स्वतः ही आ जाती है। जिनको किसी प्रकार की रचनात्मक या सृजनात्मक रूचि नहीं होती ,उनमें बोरियत की भावना स्वाभाविक है। किसी न किसी तरह की रचनात्मक कार्य में जैसे पढ़ना, लिखना ,संगीत , नृत्य या अन्य किसी भी प्रकार के सृजनात्मक कार्य में रूचि होने से बोरियत कभी महसूस नहीं होती। अपने आप को हमेशा चैलेंज करते रहना चाहिए।एक सार्थक जीवन वही है जिसमें आप थोड़ा समय अपने लिए; थोड़ा अपनों के लिए; और थोड़ा समस्त विश्व के लिए निकाल कर जीएं। जिसके जीवन में कोई लक्ष्य होता है; कोई ध्येय होता है या कहीं न कहीं आत्मिक बल के साथ एक निस्स्वार्थ भाव से जो जीवन जीता है वही सार्थक जीवन जीता है।
रोजमर्रा के जीवन में सार्थकता को कैसे लाएं? कभी कभी लगता है कि ये जीवन काफी सार्थक है, यही दिव्य जीवन है और कभी कभी लगता है की निरर्थक है। ये वास्तव में देखा जाए जीवन से सम्बंधित नहीं होता है। आपका जीवन कितना ही श्रेष्ठ क्यों ना हो तब भी आपके मन में कभी न कभी यह विचार अवश्य आएगा की मैं एक व्यर्थ जीवन को व्यतीत कर रहा हूँ। मनुष्य जीवन की प्राथमिकता है भूख को मिटाना। जब शरीर की भूख मिट जाती है तब मनुष्यों की भावना की भूख जागृत होती है उसको भावनात्मक आहार चाहिए अपने शरीर के लिए। जब भावना की भूख जो है मिटती है तो उसकी आत्मिक भूख जागृत हो जाती है। उसकी आत्मा को आहार चाहिए। तो सारा दुःख, शोक बस भूख का ही है। जब तक आपका पेट भरा हुआ है तो लगता है अच्छा अब और क्या करूं। जब आप संतुष्ट हो गए हैं एक क्षण के लिए, जब संतुष्टि जो है सांसारिक कार्य से मिली है तो वो क्षणिक होती है, जब आपको वो संतुष्टि प्राप्त हो जाती है तब आप कहते हो अच्छा और क्या करूं। जब संतुष्टि नहीं है तो वैसे ही मनुष्य कार्यरत है, इतना भाग रहा है, दौड़ रहा है, उसको अवसर ही नहीं है, समय ही नहीं है, बैठ कर विचार करने का, चिंतन करने का क्या कर रहा हूँ क्या मुझे करना चाहिए, क्या मैं करना चाहता हूँ।
"ऐसा तीनों लोकों में कोई नहीं है कौन्तेय जिसके मन में यह भाव न आता हो कभी सत्वगुण का, कभी रजोगुण का, कभी तमस का।" जब तमस अर्थात अंधकार तमोगुण का भाव आता है, तब संसार आपको बोहोत सुन्दर प्रतीत होगा। आपको अपने बोहोत अपने लगेंगे। क्यूंकि आप में एक अंधकार का भाव है। संसार यह नहीं की सुन्दर नहीं है परन्तु उस समय आपको न केवल ये सुंदर प्रतीत होता है उस समय आप संसार से अपने सुखों की कामना कर बैठते हो। और जिसकी कोई भी कामना है; किसी प्रकार से कोई भी आशा है उसको निराशा का सामना तो निश्चित रूप से करना ही पड़ेगा। एक व्यक्ति आपको जीवन पर्यन्त प्रसन्न नहीं रख सकता। एक समाज आपको सारा जीवन प्रसन्न नहीं रख सकता। मेरी प्रसन्नता मेरा व्यक्तिगत उत्तरदायित्व है। तो तमोगुण में मनुष्य बोलता है की हां मुझे तो भूख लगी है पहले मैं खा लू। रजोगुण जब प्रबल होता है तब बोलता है की खाता तो रोज़ हूँ आज कुछ अच्छा खाना चाहता हूँ। तो उसको अपना जो सार्थक जीवन है उसको श्रेयस्कर प्रतीत नहीं होता। उस समय वो इधर उधर भागता है। रजोगुण में मन में कामना की अग्नि प्रज्वलित हो चुकी है। अब वो उसको बुझाना चाहता है। परन्तु उसके मन में अंधकार नहीं है। वो किसी को हानि नहीं पहुंचाना चाहता; किसी को कष्ट नहीं पहुंचाना चाहता; किसी को दुःख नहीं देना चाहता; वह केवल अपना सुख लेना चाहता है।
एक आती है सत्व की अवस्था; सतोगुण में मनुष्य बोलता है वो सब कर के देख लिया जी, कुछ नहीं पड़ा उसमें। वो उसको तब तक लगेगा जब तक दुबारा उसको भूख नहीं लगे। जब तक उसका पेट भरा है तब तक उसे लगेगा है संसार में कुछ नहीं पड़ा। सब प्रकार के सुख -- काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार ऐसे ही बंधे हुए हैं। थोड़ी देर के लिए तृप्त होते है फिर जागृत हो जायेंगे। जो मनुष्य सत्वगुण के भाव में है, उसको अपना जीवन सुन्दर प्रतीत होता है अर्थात उसको एक वैराग्य आ जाता है। जिसके मन में वैराग्य नहीं है जो यही मान के चल रहा है की संसार में ही रहूंगा, संसार से ही सारे सुख ले लूंगा, संसार में ही खुश रहूंगा वो अज्ञानी है क्यूंकि हर समय संसार में खुश रह सको यह संभव नहीं है। क्यूंकि ख़ुशी जो है हवा के भांति होती है। एक झोंका आया आह सुखद हुई; फिर उसके बाद मनुष्य आशा में ही खुश रहता है; बस अभी दूसरा झोंका आएगा। अभी तीसरा झोंका आएगा; अभी दोबारा मैं ख़ुशी को महसूस करूंगा।
ये मनुष्य जीवन जिस मूल धागे से बुना हुआ है वह यही है की हर भाव जो है वो आकर जायेगा। हम चाहते हैं सुख के भाव को पकड़ लें। और कहा जाए तो सार्थक जीवन क्या है जिसमें की थोड़ा समय हम अपने लिए निकालें; थोड़ा समय हम अपनों के लिए निकालें जिनके प्रति हमारा उत्तरदायित्व बनता है, जिनसे हम जुड़े हुए हैं और थोड़ा समय हम समस्त विश्व के लिए निकालें। जीवन में यदि केवल अपने लिए जी रहें हैं तो भी खुश नहीं रह सकते। यदि केवल दूसरों के लिए जी रहे है तो बोहोत ज्यादा दुःखी हो जाएगें। क्यूंकि जितना ज़्यादा आप बलिदान देंगे उतनी ज्यादा आपकी कामना हो जाएगी, आशा हो जाएगी अपनों से, समाज से। जबतक आप अपने लिए समय नहीं निकालेंगे, स्वयं पर ध्यान नहीं देंगे, जबतक आप अपने जीवन को थोड़ा सा अपने ढंग से नहीं जिएंगे, तब तक आप आतंरिक रूप से आत्मिक रूप से ढृढ़ नहीं हो सकते। जब तक आप आतंरिक और आत्मिक रूप से ढृढ़ नहीं होंगे तब तक आप दूसरों का ध्यान नहीं रख सकते। आप कोई भी जीवन जी लो, वो भाव आएगा ही आएगा परन्तु जिसके जीवन में कोई लक्ष्य होता है; कोई ध्येय होता है या कहीं न कहीं आत्मिक बल के साथ एक निस्स्वार्थ भाव से जो जीवन जीया जाता है वही सार्थक जीवन है। क्यूंकि ऐसा व्यक्ति जब सोने जायेगा तो शांति से सोयेगा। हृदय में तभी शांति हो सकती है जब हमने किसी के जीवन में शांति दी है। किसी के मुख में मुस्कान लायी हो। किसी के जीवन के लिए कुछ किया। यही वेदों का सन्देश है।
जब जीवन व्यर्थ महसुस हो तो रुक जाओ, थम जाओ, एक नोटपेड निकाल लो; उसपे लिखो की मैं क्या कर रहा हूँ अपने जीवन के साथ। आप बोरियत को सार्थकता के साथ मत जोड़िये। अधिकतर लोग जीवन से बोर हैं। बोर इसलिए हैं जब बड़े हो रहे हैं बच्चे से बड़े हो रहे हैं तब जीवन में कुछ ऐसा पेरेंट्स ने नहीं किया, या बच्चों ने नहीं किया, जिससे बच्चों में कुछ पैशन हो जाता है, चाहे कुछ खेल कूद का हो, कुछ सिखने का हो, कुछ बनाने का हो, कुछ पेंटिंग का हो, कुछ डांसिंग का हो, कुछ बजाने का हो। जब जीवन में कुछ करने को ही नही है तो कितना तक आप नाइन टू फाइव सुख ले लोगे? संभव नहीं है। इसलिए जब आप एक उम्र बीतने के बाद खाली खाली घूमते हैं सोचते रहते हैं क्या करुँ? क्या करूँ? कुछ किया नहीं अब तक। अगर आप थोड़ा थोड़ा कुछ जीवन में करना शुरू करें चाहे वो किताबे पढ़नी ही क्यों न हो। जिस बच्चे को किताबे पढ़नी की आदत होती है वो जीवन में बोर नहीं होता। वह बोहत जल्दी matured हो जाता है और कभी मारा मारा नहीं फिरेगा की कोई मेरा अपना हो जाएं, कोई मुझे अपना ले, कोई मुझे प्यार करे। वो अंतर्मुखी हो जाता है। तो जब आप कुछ सीख रहें हैं, तब सिखने में सुख नहीं होता पर जब आप सिखने के बाद एक स्तर पर पहुंच जाते है तब जो है सुख प्राप्त होना शुरू होता है। इसलिए अपने आप को थोड़ा थोड़ा जीवन में चैलेंज करते रहना चाहिए तो बोर नहीं होंगे। अगर बोर नहीं है तो सार्थकता स्वतः ही आ जाएगी।
ॐ स्वामी जी के प्रवचन से
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