Tuesday, December 12, 2017

जीवन को चिंतारहित कैसे बनाएं? (How to make a stressfree life?)

जीवन को चिंतारहित बनाने के बोहोत ही सरल और सटीक उपाय हमारे भारतीय संस्कृति और उसकी आध्यात्मिक संपन्नता में निहित हैं , समाहित हैं। हमारे महात्माओं ने, संतों ने, गुरुओं ने सदैव अपने पुस्तकों में, प्रवचनों में, सत्संगों में इनका वर्णन किया है। जीवन को चिंता रहित बनाने का एकमात्र उपाय है आध्यात्मिक बनना। आध्यात्मिकता ही हमें सहज, सरल और वास्तविक स्वरुप प्रदान करती है। आध्यात्मिक बनने के लिए इन्द्रियों का संयम बोहोत आवश्यक है। संयम में ही जीवन का सुख है, सिद्धि है। हमारे मन, वचन और कर्म में संयम होना, नियंत्रित होना ही सबसे बड़ी साधना है और इससे ही हमें एक चिर-स्थापित आनंद प्राप्त होगा। जैसे ही हम अपने विचारों में संयम लाएंगे, वाणी में संयम लाएंगे, हमारे कर्म भी योग हो जाएंगे -- व्यवस्थित, सार्थक और अर्थपूर्ण। अच्छे और उत्कर्ष विचारों से ही हम जीवन में हताशा और निराशा को जीत सकते हैं। संयमी व्यक्ति ही जीवन में सबकुछ हासिल कर लेता है अपनी एकाग्रता से। साथ ही साथ हमें अच्छी आदतों को, संस्कारों को अपने भीतर लाने चाहिए। अपने ऊपर ही हमें प्रयोग करना है। इसलिए लिखने और पढ़ने की आदतें हमें विचारों की स्वतंत्रता देते हैं। एक सार्थक सोच ही हमें जीवन में सार्थक मार्ग प्रदान करती है। अतः आध्यात्मिक बनना ही जीवन को चिंतारहित बनाना है। यह जीवन इश्वरीय देन है; इसे देवीय बनाना, महान बनाने के लिए जो पवित्रता, निश्छलता चाहिए वो केवल आध्यात्मिक मार्ग में ही संभव है। 
भारत का प्राणी अधिक आध्यात्मिक है। यह बड़ा अनुभव है हम सबका और संसार के भी अन्य प्राणियों का कि एक आध्यात्मिक संपन्नता है तो भारतीयों के पास है। अगर एक स्थायी समाधान चाहते हो और ऐसी प्रसन्नता जो छीनी न जा सके; एक ऐसा सुख जो चुराया न जा सके और एक ऐसी स्थिरता जो खंडित न की जा सकती हो; ऐसी सहजता जो सदा बना कर रखी जा सकती हो, वो आध्यात्म से ही संभव है। पूरे पश्चिम में वो जब कभी यह प्रयोग करना चाहेंगे या कभी ये कल्पना की जाएगी की पूरी धरती को एकता के सूत्र में पिरोना है, सभी मनुष्य एक हो जाए तब वो प्रयोग राजनीतिक दृष्टि से सफल नहीं हो सकता। वो आर्थिक गलियारों में सफल नहीं होगा। वो औद्योगिक क्रांति से संभव नहीं होगा। वो किसी वार्ता या संवाद से नहीं होगा, वो कोई और कारण नहीं होगा; उसके लिए कोई और प्रयोग नहीं सफल होंगे। वो प्रयोग एक हो सकता है कि इस धरती के सभी प्राणियों को आध्यात्मिक बना दिया जाएं। वो प्रयोग सफल हो सकता है आध्यात्मिक गलियारों में। हम आध्यात्मिक बने। आध्यात्मिक बनेंगे तो बड़े स्वाभाविक होंगे; प्राकर्तिक होंगे। जो बोहोत नैसर्गिक और प्राकर्तिक ढंग से जीवन जीता है, वो जीवन में सुख और लाभ का अधिकारी बना है।  अगर भीतर में सुख वांछा है की हमें सुखी होना है; अधिक लाभान्वित होना है; हमें अधिक उन्नत कोटि का जीवन जीना है; उत्कर्ष को प्राप्त होना हैं या हमें जीवन में पूर्णता अर्जित करनी हैं; आभाव का भंजित करना है और किसी प्रकार की आधी - व्याधि से त्रस्त हो कर दुखित न हो, एक सहज और आनंदप्रद हाथ लगे तो वो आध्यात्म है -- अपने स्वभाव में लौटना। ये बड़ी कठिनाई है की हम स्वाभाविक नहीं रहना चाहते। जब हम अस्वाभाविक होते हैं तभी हम असहज होते हैं। हम स्वाभाविक बने। हम बड़े सरल बने। हम बोहोत निश्छल बने। इससे बड़ी और कोई सिद्धि नहीं हो सकती। 

जीवन कभी कभी पहाड़ जैसा बन जाता है। जीवन कुछ लोग पहाड़ जैसा बना लेते हैं। पहाड़ माने चढ़ो उतरो और चढ़ो फिर उतरो। बस ये पाना है। इतने बड़े बड़े गॉल मत बनाओ की जीवन एक पहाड़ जैसा बना ले। बियाबान जंगल जैसा कर लें। तपती रेत पे चलना जैसा हो जाये। कंटक पथ पर चलना जैसा हो जाये या बड़ा संकर सा दिखे। या उसमें बड़ी जद्दो जिहद सा दिखे। या वो बड़ी दुविधाओं से भरा हो या निरंतर व्याधिओं से घिरा हो; या तो उसमें बड़ा क्लेश पैदा कर लें या कि बड़ा द्धेष पैदा कर लें। या की हम सोचे की अब जीवन कैसे काटें। 

मैं यह कहना चाह रहा था की बोहोत सरल बनाओ जीवन को। उसे पहाड़ जैसा मत बनाओ की आप चढ़े और उतर जाये। कुछ ऐसे सपने देखें की जीवन बहुत जटिल या क्लिष्ट दिखे।  जीवन में पतन सहज है उत्थान सहज नहीं। आकर्षण अधिक है। संसार में बोहोत आकर्षण है जो हमें अपनी और खींचते हैं। संग्रह के, संचय के, बड़ा दिखने के, दिखाने के और आगे बढ़ने के; उनमें हम फिसल जाते हैं। पतित होने के लिए कोई मंत्र नहीं है । गिरने के लिए, डिगने के लिए, पथभ्रस्त होने के लिए, स्वभाव से विमुख होने के लिए, भ्रस्त होने के कोई उपाय नहीं हैं।धरती में इतना आकर्षण है कि वो कब हमें अपने मार्ग से भटका दे। लेकिन अगर आप सहजता से चल रहे हैं, आध्यात्मिक प्रयोग के साथ चल रहे हैं, आप ऐन्द्रिक सीमांकन के साथ चल रहे हैं तो पहुंच जायेंगे।  

"जीवन का सौंदर्य किसमेँ है ? जीवन का सुख किसमें है ? जीवन की सिद्धि कहां छुपी हुई है ? जीवन का सौंदर्य, जीवन का सुख, जीवन की सिद्धि "ऐन्द्रिक संयम" में छुपी हुई है। अगर आप ऊर्जावान बनना चाहते हो, सामर्थ्यवान बनना चाहते हो; जीवन को बोहोत आनंद और प्रशंनता में जीना चाहते हो तो एक ही सूत्र है और वो है ऐन्द्रिक संयम। अपनी इन्द्रियों में संयम करना सीखें। इसी संयम में ही सौंदर्य छुपा है, आनंद छुपा है, प्रशंनता छुपी हुयी है। तीन संयम बोहोत बड़े हैं मन, वचन, कर्म। प्रयोग करना सीखो अपने ऊपर। अगर वाणी में संयम आ गया, क्या बोलना है; आहार का संयम आ गया, विचार का संयम आ गया तो एक बड़े आनंद से आप जुड़ जायेंगे।"   

बोहोत सी कठिनाई तो हम वाणी संयम के कारण आस-पास देखते हैं। वेद कहता है जीवन ऐसा कठिन है जैसे तलवार की धार पर चलने जैसा पर साथ में एक बोहोत सुन्दर सी बात कही गयी है वेद में, संयमी व्यक्ति सबकुछ पा लेता है। संयम में जीवन का सौंदर्य छुपा हुआ है; समाधान छुपा हुआ है। वाणी के संयम के प्रयोग में क्या बोलना है यह आपको पता होना चाहिए, कितना बोलना है जो आपका बोलना है वह आपका अध्ययन हो, आपका अनुभव हो, जो आपका बोलना है उसमें मात्रज्ञता हो, जो आपका बोलना है उसमें दूसरे के लिए आदर हो, प्रशन्नता हो, जो आपका बोलना है वो अधिक ना हो; वो बोहोत मर्यादित हो, संतुलित हो, बोहोत व्यवस्थित हो, जो आपको बोलना है उसकी पूरी तैयारी हो। बोहोत सी विपत्तियां तो हम इसलिए मोल लेते हैं की हमें बोलना नहीं आता। हम कब क्या बोल जायेंगे यह हमें पता नहीं हैं। तो सुनो अधिक बोलो कम। जो कम बोलते हैं वो अधिक प्रिय होते हैं और अधिक उपयोगी भी होते हैं। बादल कम बोलते हैं दिशाएं कम बोलती हैं। धरती कम बोलती हैं मनुष्य ही है जो अधिक बोलता है। पशु-पंछी उतना ही बोलते हैं जितना सार्थक है। इसलिए वाणी का संयम कीजिये। कम बोलिये यह प्रयोग है हल्का सा। आप तैयारी करके बोलिये जब भी बोलना है कम बोलना है मीठा बोलना है सार्थक बोलना है। अगर संभव हो सके तो भाषा का श्रृंगार करके बोलना है। और भी आगे बढ़ें तो ललितपूर्ण बोलना हैं और भी आगे बढे तो जब बोलेंगे तो कुछ अध्ययन के साथ बोल रहे हैं हम, अनुभव के साथ बोल रहे हैं हम। एक निर्णायक फिर संवाद है वो। 

उससे पहले कहा गया है "सोचने" को। आपको यह भी पता हो की कितना सोचना है। अपने सोचने की भी तैयारी करें, प्रयोग है ये "संयम"। मैं अधिक बोझ नहीं दूंगा मष्तिष्क पर। दिशा तय करिए सोचने की। इसपे बोहोत अच्छी बात एक मनोवैज्ञानिक कहता है जब आप सोचने की एक दिशा बनाते हैं सोचने का एक रास्ता तय करते हैं तो वैसे ही सोचते चले जाते हैं फिर वैसे ही परिणाम आपको प्राप्त होने लगते हैं। इसलिए एक बेहतर मुद्दा दें सोचने के लिए। और उसमें चिंता, संशय, भ्रम, नैराश्य, हताशा, अश्रद्धा है अगर तो आप ढंग से सोच भी नहीं पाएंगे। अगर आपके पास अश्रद्धा है तो ध्यान रहे नैराश्य आएगा और यह जो नैराश्य है अकर्मण्यता लाता है। और अकर्मण्यता आपके भीतर में सृजन नहीं होने देती। एक बोहोत ही बड़ा सूत्र है। आप नया नहीं कर पाएंगे। आपकी अभिव्यक्ति, आपका सृजन, आपकी कल्पनाएं, आपके प्रयोग बासी हो जायेंगे। वो बोहोत ठहर जायेंगे। आप कुछ नया नहीं कर पाएंगे क्यूंकि आपके पास में श्रद्धा नहीं है, उत्सुकता नहीं है, जीवन के प्रति उल्लास नहीं है। तो उसके आभाव में क्या आता है नैराश्य, हताशा; उससे पैदा होती है अकर्मण्यता। इसलिए सोचिए ढंग का सोचिए। तो बोलने से पहले सोचना। और वो अध्ययन से होगा। वो महापुरुषों की संगती से होगा। वो एक बोहोत बड़े स्वाध्याय से होगा। वो एक बोहोत बड़े संकल्प से होगा। वो एक बोहोत बड़ा आदेश देना होगा अपने को कि ये जो कल सवेरे सूरज निकलेगा वो नयी सोच के साथ निकलेगा। मेरी सोच सस्ती नहीं हो सकती। वो मुझे भ्रमित और शंकित नहीं कर सकती। वो भीतर निरंतर संदेह के घेरे में नहीं रख सकती। मुझे वो हताश और निराश नहीं बना सकती। तो मुझे एक निवेदन करना था संयम सोच में भी लाइए। और ये एक आध्यात्मिक गलियारे में संभव है। जो आध्यात्मिक प्राणी होता है वो अच्छा सोचता है। 

इतनी सी चीज़ और है कि जो कुछ भी हम सोच रहे हैं उसके परिणाम के प्रति सजक रहें। हमारी चेष्टाएं व्यर्थ न हो। जैसे संयम करने लगोगे आपके पास समय आकर खड़ा होने लगेगा। जब आपके इन्द्रियों में संयम पैदा हो जाता है तब एक हाथ आपके आती है चीज़ वो है समय और दूसरा उसकी सार्थकता करने की आपके भीतर उत्कटता, एक अभिलाषा। जिस दिन आपने संयम शुरू कर दिया मन वचन कर्म का, जिस दिन जीवन पर संयम शुरू किया आपने एक चीज़ हाथ निकल कर आएगी , आपके सामने खड़ी हो जाएगी, उसका नाम है समय। और वह आपसे सार्थकता चाहेगा की आप उसे उपयोगी बना लें। उस समय का लाभ ले लें। जिस अर्थ पर संयम करना शुरू करोगे अर्थ बच जायेगा। धन बच जायेगा। इन्द्रियों पे संयम करोगे समय बचने लगेगा। और उसका फिर लाभ लीजिये अध्ययन में, चिंतन में, लेखन में , स्वयं को समझने में, अच्छा स्वाभाव बनाने में और ये मनुष्यों ने किया हैं। जिस दिन संयम करना सीखोगे स्वयं से परिचय होगा उस दिन। और जिस दिन स्वयं से परिचय हुआ, उस दिन सार्थक करना चाहोगे खुद को। 

अन्य कुछ छोटी छोटी चीज़े हैं जो बोहोत महत्वपूर्ण सी लग रही हैं।  हमारे पास में प्रतिरोधात्मक शक्ति का आभाव हो रहा है। विकट परिस्तिथियाँ हो, विषम परिस्तिथियाँ हो, चिंता, भ्रम, भय हो उससे जल्दी त्रस्त हो रहा है आज व्यक्ति।  तो अगर आप संयमी हैं तो इससे लाभ ही होगा की आपकी प्रतिरोधात्मक शक्ति बढ़ेगी और कठिन से कठिन, विषम से विषम परिस्तिथियाँ भी आपको विचलित नहीं करेगी; इसलिए संयम जगाइए। प्रतिदिन आप लिखने का संस्कार लाईये, पढ़ने का संस्कार लाईये; डायरी मेन्टेन कीजिये। फिर आप देखेंगे एक स्वतंत्र चेतना आपकी जगी है। फिर तब आप नियंत्रित कर पाएंगे। और फिर आप एक नई दिशा दे सकते हैं चिंतन को, उन विचारों को जो उखड़े हुए हैं। उन विचारो को जो कुछ आवारा से हैं या उन विचारों को जिन में हम बहते जाते हैं। अथवा वे भाव जिनमें हम सदा डूबे रहते हैं। 

जिनमें स्वतंत्र चेतना नहीं रहती, उन्हें अगर मलिन छू जाए तो मलिन ही रहते हैं वो ; फिर वो दोष ही रहते हैं फिर वो किसी शोक में ही डूबे रहते हैं। उनके पास शिकायतें फिर कभी कम नहीं होती। कभी अपने भीतर से पूछो कि आप दूसरों के प्रति सहयोगी भाव से हैं। कृतज्ञ भाव हैं या विनम्र भाव हैं या की आपके भीतर में शिकायत का पिटारा है? बोहोत शिकायत है क्या दूसरों के लिए, अपनों के लिए, परिवार के लिए, पड़ोसी के लिए। और ये युग तो विशुद्ध रूप से निंदा का युग है जिस युग में सारे लोग बेकार हैं। जब आपने ये तय कर लिया की सब बेकार है तो कुछ अच्छा नहीं दिखेगा आपको। स्वतंत्र चेतना बनिए। ठीक ढंग का निर्णय करना आये आपको। इसलिए परिवाद मिटाईये अपने भीतर। शिकायतें कम हो दूसरों लिए। परदोष दर्शन का आभाव पैदा हो। ये तब होगा जब आप वैचारिक संयम लाएंगे विचार से ही। इस धरती पर जब जब बड़े बड़े परिवर्तन हुए हैं या क्रांतियाँ हुयी हैं तो वो क्रांतियां विचारों ने पैदा की हैं। सिद्धांतों ने पैदा की हैं। विचारधाराओं ने पैदा की है। वो क्रांतियां बड़े चिंतन के कारण पैदा हुयी हैं न कि वो क्रांतियाँ बड़े भवन बना कर हुयी हैं या बोहोत अधिक अर्थ का संग्रह कर के हुयी हैं और हाँ जीवन का सच्चा सुख भी उन्ही के हाथ लगा है जिन्होंने कुछ वैचारिक क्रांति की हैं। तो एक प्रयोगधर्मा बनिए। 

प्रयोग धर्मा के साथ साथ उत्सव धर्मी भी बनिए। जीवन में उत्सव लाईये, उसे थोड़ा सजाइये, उसमें मिठास लाईये, उसे रंगबिरंगा बनाइये। ऐसे तो हमारे यहां बोहोत उत्सव हैं -- होली दिवाली, दशहरा। आये दिन उत्सव है कोई उपवास है घर में; तीज़ त्यौहार है। कोई सामाजिक उत्सव है; पारिवारिक उत्सव है। इसलिए उत्सवधर्मी बनिए। घर को सजाइये, मन को सजाइये। मैंने बोहोत उच्च स्तरीय महात्माओं के आस पास देखी है और वो है की जीवन दिव्य है। ये ईश्वरीय जीवन हैं; भगवतीय जीवन है; ये ईश्वर का उपहार है।  इस सांसारिकता में हो कर भी ये किसी बड़े काम के लिए है बड़े सिद्धि के लिए है। ये छोटी मोटी बातों में उलझने के लिए नहीं है। महान बनाइये इसे। उच्च स्तरीय बनाइये इसे। आपके चिंतन में विकृति न आये; विचार आपके असहज न हो; और आपकी अभिव्यक्ति उत्तम कोटि के होने चाहिए। और आचरण आपका पारदर्शी होना चाहिए, कहीं कोई बनावट नहीं होनी चाहिए। कंही कोई आपमें किसी प्रकार की असहजता न हो। और वो तभी संभव है जब आप आध्यात्मिक बने रहें; पल पल आप चिंता करते रहें। आप ठीक संकल्प पैदा कीजिये। थोड़े गंभीर बनिए जीवन के प्रति। थोड़े ईमानदार बनिए; निश्छल बनिए। संकल्प लीजिये की जीवन को निर्दोष बनाना है, सरल बनाना है। पवित्र बनाना है।

स्वामी अवधेशानन्द गिरिजी महाराज के प्रवचन से...

By Pranati Saikia

No comments:

Post a Comment

Teachings from Kathopanishad - Part II

Nachiketa asked Bhagwan YAMA, " Tell me that knowledge or karma by which we will be able to go to Heaven." He asked this for the ...